स्कूल का बस्ता
निहाल सिंह जैन
बात
सन 1945 की है। मैंने
सनातन जैन पाठशाला, मानपाडा
से कक्षा 2 पास की और
आगे की पढ़ाई के
लिए सेंट जोन्स हाई
स्कूल में दाखिले
के लिए टेस्ट देने
गया। हमारे रोशन मोहल्ले के
कुछ और लडके भी
टेस्ट देने गये थे
तो मै भी चला
गया पर हममें से
किसी का दाखिला नहीं
हुआ। होना
भी नहीं था। हमारी
सिफ़ारिश करने वाला कोई
नही था। सेंट जोन्स
स्कूल उस ज़माने का
आगरा का सबसे अच्छा
स्कूल माना जाता था
और हम रोशन मुहल्ला
वाले सब देशी पाठशालाओं
से थे, अंग्रेजी का
ए बी सी डी
भी नही आता था।
और सब लडके तो
अपनी अपनी पाठशालाओं मे
तीसरी क्लास में भर्ती हो
गए पर मेरा कहीं
भी दाखिला नही हुआ। मेरी
माँ मुझे बडे और
अच्छे स्कूल मे भेजना चाहती
थी। घर वाले परेशान
थे पर मेरी माँ
ज्यादा चिन्तित थी। उन्होेंने एक
दिन मुझे शंभूनाथ को
बुलाने के लिए उनके
घर भेजा। शंभूनाथ शर्मा मेरे बडे भाई
के क्लास फैलो थे ओर
हमारे घर अक्सर आते
रहते थे। बडे भाई
साहब का ब्याह तो
सन 1944 मे हाई स्कूल (10वीं)
पास करते ही हो
गया था और वह
दिल्ली अपने ससुराल व्यापार
करने के लिए चले
गए धे। हमारे पिता
जी की कपड़े की
थोक दुकान बजाजे में थी पर
अब व्यापार में घाटे की
वजह से बन्द हो
चुकी थी। दुकान भी
किसी ओर ने खरीद
ली थी। पिता जी
गांधी जी के विदेशी
कपडे के बहिष्कार के
समर्थक थे और विदेशी
वस्त्रों की
होली जला चुके थे
और विदेशी कपड़ा नहीं बेचने का
व्रत ले चुके थे।
व्यापार मे घाटा तो
होना ही था।
हमारे
घर से शंभु नाथ
का घर करीब 600 मीटर
दूर था। उनका घर
वास्तव में एक मंदिर
में था जो जहां
रोशन मुहल्ला मानपाडा के आखिरी छोर
पर मिलता था पर स्थित
था। यह केलो पंडित
का मन्दिर कहलाता था। पंडित कैलाश
नाथ शर्मा शंभूनाथ
के बाबा थे और
उनके एक मात्र पुत्र
नत्थी लाल जी शंभूनाथ
के पिता थे। नत्थी
लाल जी गवरमेंन्ट हाई
स्कूल में गणित के
अध्यापक थे और पास
पड़ोस में मास्टर साहब
के नाम से मशहूर
थे। उनका नाम नत्थी
इसलिए पडा कि जब
केलो पंडित के यहां कोई
बालक जिंदा नही रहता था
तो किसी ओझा की
सलाह पर नये बालक
के जन्मते ही उसकी नाक
का एक नकुआ जरा
सा काट दिया गया
था और मास्टर साहब
बच गये। हम सब
बच्चे मास्टर साहब से बहुत
डरते भी थे। पास
पड़ोस में कोई बीमार
होता या चुटैल हो
जाता तो सबसे पहले
मास्टर साहब के पास
आते और फर्स्ट एड
मिल जाती थी।
पंडित
कैलाशनाथ बुढ़ापे के कारण बहुत
दुबले पतले थे पर
बहुत लोकप्रिय थे। मन्दिर शिव
शंकर का था और
क्योकि इस भवन के
एक तरफ मंटोला का
गहरा नाला बहता था
इसलिए महादेव जी की पिंडी
गली की तरफ बनी
थी और एक पीपल
का पेड भी था।
दरवाजे पर आम के
तख्तों की बने किवाड़ हमेशा
खुले मिलते। दरवाजे के ऊपर गणेश
मूर्ति थी। घुसते ही
सामने एक बड़ा चौकोर
कमरा था। जब मैं
वहां पहुंचा तो
शंभूनाथ हारमोनियम बजा रहे थे,
पड़ोस का महेश तबले
पर और मानपाडे के
जैन स्थानक के सामने रहने
वाली मीना तानपूरे पर
संगत दे रही थी।
केलो पंडित राग भैरवी मे
आलाप ले रहे थे।
अब मैं भी बैठ
कर सुनने लगा। बीच में
बोलना सख्त मना था।
इस बड़े कमरे और
मुख्य द्वार के बीच एक
बड़ा आँगन था।
मकान तो क्कईय्या ईटों
से बना था पर
आँगन बड़ी गुम्मा ईटों
के फर्श से पक्का
कर दिया गया था।
फर्श के चारो तरफ
ईंटों के गमले बने
थे जिनमे तरह तरह के
पौधे लगे थे। कुछ
फुल वाले थे और
कुछ सदाबहार। दो
बेल घर
के खंबो के सहारे
चढ कर दूसरी मंजिल
तक पहुंच गई थी। एक
लटर बेल थी जिस
पर हर वक्त लाल
और गुलाबी रंग के फूलों
के गुच्छे झूलते रहते। दूसरी पर बैंगनी रंग
के लम्बे भोंपू जैसे फूल आते
थे और कई नौक
वाले पत्ते लगते थे। इस
बेल का नाम याद
नही है। मास्टर साहब
की बैठक द्वार के
दाईं तरफ मन्दिर के
ठीक सामने थी। ऊपर की
मंजिल पर तीन कमरे
थे। जीनें से चढ कर
द्वार की तरफ एक
छोटी छत के बाद
मास्टरनी जी (शंभूनाथ की
माॅ) का कमरा था।
बैठक के ऊपर और
बडे कमरे के ऊपर
दो कमरे थे।
केलो
पंडित जी संगीत साधना
के समय रोयल बंगाल
टाइगर की पूरी खाल
पर बैठते थे और तबले
की थाप के साथ
टाइगर के स्टफड सिर
पर ताल देते रहते।
संगीत का रियाज खत्म
हुआ तो मैने शंभूनाथ
से कहा " भाई साहब बाई
जी ने बुलाया है।"
शंभूनाथ हारमोनियम बन्द करके ढकने
लगे और महेश ने
तबला जोडी को ढकने
के बाद टाइगर की
खाल को लपेट कर
आलमारी में बन्द कर
दिया और रसोईघर से
सबके लिए नाश्ता लाने
चला गया। मीना तानपूरे
को एक कौने मे
रख के ऊपर मास्टरनी
जी के पास चली
गई। शंभूनाथ बोले कि शाम
को आ जाऊॅगा। इस पर केलो
पंडित बोले "शंभू तू अभी
निहाल के साथ चला
जा, कोई जरूरी काम
होगा जो उन्होंने बारिश
में इसे भेजा है।
हल्की फुहार पड रही थी।
हम दोनों ने नाश्ता किया
और चलने लगे कि
मास्टर साहब ने पुकारा
" निहाल यह काॅपी ले
जाओ, बहिन को दे
देना, करेक्शन कर दिए "।
अपने टेडे बांये हाथ
से काॅपी थमा दी। बचपन
मे फोडे के आप्रेशन
के समय से ही
टेडा हो गया था।
शंभूनाथ
और मै मानपाडे से
रोशन मुहल्ले की तरफ चढाई
वाली गली मे चलने
लगे। आते वक्त उतराई
थी और आसानी से
आ जाते पर लौटने
मे काफी जोर लगाना
पडता था।
कई मोड़ और चढाई
के बाद हमारे घर
से पहले शीतल नाथ
जी के नाम से
मशहूर श्वेतांबर जैन मंदिर आता
है। दरअसल यह मंदिर 23वें
तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी का है
और मुख्य मंडप के बाद
एक चौक के सामने
एक काले कसौटी पत्थर
की एक विशालकाय मूर्ति
10वें तीर्थंकर शीतलनाथ जी की है।
यह मूर्ति दिगम्बर रीति की है
और बहुत प्राचीन है।
इस मूर्ति के ऊपर सफ़ेद
संगमरमर की छतरी पर
आगरा की मशहूर पच्चीकारी है
जो ताजमहल की पच्चीकारी जैसी
बेहतरीन है। जैन
मंदिर के ठीक सामने
दो दुकान थी। एक किशन
लाल सुनार की और दूसरी
श्री भगवान गोटे वाले की।
इसके अलावा पूरे रोशन मुहल्ले
में कोई और दुकान
नही थी। हाॅ मस्जिद तले से रोशन
मुहल्ले के लिए उतरने
वाली घटिया पर दूधवाले, कचौडी
वाले और एक बच्चो
के लिए मीठी गोली
चुस्की आदि की दुकाने
धी।
गली
के अन्त तक पहुंचते
ही एक छोटी गली
बाई ओर चढाई के
साथ मुडती है, इसी गली में दाईं
ओर पहले मकान को
छोड़कर हमारा चार मंजिला घर
है। मुख्य दरवाजा उभरी हुई नक्काशीदार
लाल पत्थर का था और
ज्यादातर लाल
बलुआ पत्थरों और ककईय्या ईंट
से बना था। छत साल की
लकड़ी की शहतीरों पर
टिकी थी। उस ज़माने
मे सीमेंट का प्रयोग बहुत
कम होता था। सारे मकान मिट्टी
के गारे और चूने
से बनाये जाते थे।
मुख्य
द्वार पर बहुत भारी
काॅठ के किवाड थे
जो बजाए कब्जों के
लकड़ी की चूल पर
चलते हैं।
नीचे
की मंजिल पर कोई नही
रहता था। हम दूसरी
मंजिल में रहते थे।
तीसरी और चौथी मंजिल
पर किराए दारों के परिवार रहते
थे।
सबसे
नीचे की मंजिल मे
पोली से अन्दर जाने
पर एक चौकोर ऑगन
था जिसे पुराने समय
मे चौक कहते थे।
चौक के चारो ओर
करीब 2 फुट
ऊंचाई के रास्ते थे
और बीच का चौकोर
भाग नीचा था। पानी
निकालने के लिए एक
कौने मे मोरी थी,
इस में ही एक
परनाला सबसे ऊपर की
छत से बरसात का
पानी लोहे के टट्टर
के बीच से गिराया
था और पानी सीधा
बाहर गली की खुली
नाली मे जाता था।
चौक
के तीन ओर कमरे
और कोठे थे जिनमे
हवा और रोशनी चौक
जो ऊपर तक खुला
हुआ था, से ही
आते थे। ऊपर तीन
मंजिल तक कमरे और
कोठे थे। सिर्फ चौथी
मंजिल पर दाई ओर
कुछ नहीं बना था
और उस दक्षिण दिशा
से ही धूप और
रोशनी ज्यादातर आती थी। इसलिए
नीचे के कमरों और
कोठों मे कम रोशनी
आती थी और सीलन
भी थी। वैशाख जेठ
में तो इन कमरो
और कोठो मे हम
लोग उठते बैठते थे
पर बाकी महीनो मे
यह खाली रहते थे।
चौक
के दाहिने कौने से ऊपर चढने
के लिए जीना था।
पुराने जमाने मे जीने और
संडास (खुड्डी) के हिस्से में
सबसे कम जमीन आती
थी। हमारे घर का जीना
भी ऐसे ही बहुत
कम जगह मे बना
था और इस वजह
से सीढियाँ भी बहुत ऊंची
ऊंची थी। कोई कोई
सीढी तो 18 या 20 ईंच ऊंची थी
पर हम सबको इसकी
आदत थी और हम
बच्चे तेजी से चढ
जाते थे। इतने बडे
घर में सिर्फ तीन
संडास थे, एक दूसरी
मंजिल मे और दूसरा
तीसरी मंजिल मे। हाॅ एक
सबसे नीचे की मंजिल
मे पोली के बायें
कौने मे था पर
वहां बहुत अंधेरा और
बदबू थी। नौकर चाकर
ही उसमे जाते थे।
पूरे
घर मे हमारे और
किरायेदारों के परिवारों में
कम से कम 30-35 व्यक्ति
छोटे बडे मिलाकर थे
और इन ऊपर के
दो संडासो में ही निबटते
थे।
अब शंभूनाथ और मै उस
जीने से ऊपर पहुंच
गये थे। शंभूनाथ चप्पल
उतार कर तिवारे मे
तख्त के ऊपर बैठ
गए और मै नंगे
पैर एक टाट की
बोरी पर पैर पौंछ
कर रोंसौ (ऊपर की मंजिल
में चारो तरफ पतला
दो फुट चौड़ा रास्ता)
मे भाग कर रसोई
मे पहुंचा और बाईजी को
बताया कि शंभूनाथ भाई
साहब आगये हैं। रोंसौ
के चारों तरफ पत्थर का
कटहरा करीब दो फुट
ऊंचाई का और उसके
ऊपर लकड़ी का कटहरा था
करीब ढाई फुट
ऊंचा
जिसमे चारों तरफ एक
एक काफी चौडी खिड़की
भी थी ताकि नीचे
से ऊपर सामान वगैरह
लिये जा सकें।
हम अपनी मां को
बाई जी के संबोधन
से ही बुलाते थे।
मां जयपुर राजपूताने से थी और वहाॅ
कन्याएं बाई या बाईसा
के संबोधन से ही बुलाई
जाती थी। विवाह ग्यारह
वर्ष की छोटी उम्र
मे हुआ था तो
पीहर से एक औरत
भूरी बाई जो उनकी
धायॅ थी और बचपन
से उन्हे पाल पोस रही
थी, उनकी देखभाल के
लिए आई। उसके साथ
उसका डेढ वर्ष का
एक बेटा भी आया। हमारे
परिवार के साथ ही
रहा और पिता जी
ने उसे भी घर
के पास एक पाठशाला
में भर्ती करा दिया पर
पांचवी कक्षा से आगे पढाई
नही कर पाया। उसका
मन पढाई में नहीं
लगता था। भूरी बाई
शुरू से ही हमारी
मां को बाईसा बुलाती
होगी और धीरे
धीरे सब मां को
बाई जी बुलाने लगे।
समाज और रिश्तेदारी के
लोग उन्हे "पूरन चंद की
बहु " के नाम से
संबोधित करते थे। उनका
अपना नाम सज्जन कुवॅर
शायद खो ही गया
था। पिता ने उन्हे
सबसे बड़ी बेटी आंनदो
की मां के संबोधन
से ही बुलाया। हम
सब पिता को चाचाजी
बुलाते थे। आंनद बहिन
के जन्म से पहले
दादी की चचेरी बहिन
एक बेटी के साथ
घर मे रहती थी।
वह चाचाजी बुलाती थी तो जब
आंनद बहिन ने बोलना
शुरू किया तो वह
भी चाचाजी और बाईजी कहने
लगी। इस तरह मां को बाई
जी और पिता जी
को चाचा जी ही
सब बच्चे बुलाते थे। भूरी बाई
हमारी मां के कई
पुत्र और पुत्री होने
तक यहीं रही और
फिर काफी उम्र मे
जयपुर हमारी नानी के पास
चली गई। उनका मानना
था कि बुढ़ापे में
बेटी के घर मे
मरना अच्छा नहीं
होता। उनका बेटा मथुरा यहीं
रहा और पिता जी
की कपड़े की दुकान पर
काम करने लगा।
बाई
जी धोती के पल्लू
से हाथ पौंछ कर
तिवारे में आकर शंभूनाथ
के पास बैठ गई
और उनके बाबा व
मां का हाल चाल
पूंछने लगी। फिर बोली
कि निहाल का अभी तक
किसी स्कूल मे दाखिला नहीं
हो पाया है, अब
तुम ही इसका कहीं
दाखिला करा दो। शंभूनाथ
ने बाई जी के
पैर छुए और बोले
कि मैं अब ब्राह्मण
स्कूल में ड्राईगं का
मास्टर लग गया हूॅ
और वहीं निहाल को
भर्ती करा दूॅगा। आज
इतवार है कल इसे
सात बजे तक तैयार
कर देना, में साथ ले
जाऊॅगा। और बहिनें और छोटे भाई
ऊपर किराएदारों के बच्चो के
साथ खेल रहे थे।
सबसे बडी दो बहिनो
की शादी सन 1942 मे
दिल्ली हो गई थी।
एक बड़ी बहिन मुन्नी
जीजी को स्कूल से
निकाल लिया था और
घर पर मां से
घर के काम काज
सीख रही थी। बाकी
दो बहिन और दो
भाई अलग-अलग स्कूल
या पाठशालाओं में पढ रहे
थे। एक बहिन मुझसे
करीब दो साल बड़ी
थी बाकी तीनों छोटे
थे।
सोमवार
तारीख छह अगस्त 1945 को
बाई जी ने मुझे
सुबह पांच बजे ही
उठा दिया, मैने
कुछ आनाकानी तो की पर
बाई जी के आगे
अच्छे अच्छों की नहीं चलती
थी। नहाना मुझे अच्छा नहीं
लगता था पर बाई
जी ने पकड़कर रगड़
रगड़ कर नहला दिया
और छह बजे तक
कपड़े जूते पहना कर
बिल्कुल तैय्यार कर दिया। हम
बच्चो के लिए नये
कपड़े बहुत थोड़े थे,
बड़े भाई बहन
की उतरन ज्यादातर पहनते
धे। बडी बहिन मुन्नी
जीजी ने मेरे बालों
मे तेल लगा कर
कंघी से बाल संवार
दिए। मै करीब आठ
साल का था पर
भलीभाँति बाल संवारना नही
आता धा। मुझे नाश्ते
मे एक पराठा,
कल रात के बचे
हुए मे से, मक्खन
के साथ मिला और
एक ग्लास गर्म दूध खूब
सारी शक्कर डालकर पिला दिया। अब मै पूरी
तरह तैयार धा।
पौने
सात बजे शंभूनाथ भाई
साहब आगये और बाई
जी ने शंभूनाथ को
एक एक रूपए के
चार सिक्के दाखिले के लिए दिए।
हम दोनों पैदल बज़ाजे से
दरेसी की तरफ चलने
लगे। अभी बज़ाजे मे
कोई दुकान नहीं खुली थी,आगे चौराहे पर
आगरा फोर्ट छोटी लाईन स्टेशन
के सामने सिर्फ एक दुकान चिम्मन
पूड़ी वाले की थी
और खुली हुई थी।
इसके बाद दरेसी नम्बर
एक से दरेसी नम्बर
तीन तक कोई दुकान
नही थी एक दो
पत्थर की मूर्ति की
छोड़कर। इन
दुकानों मे कारीगर लाल
बलुआ पत्थर के हनुमान बनाते
थे। एक तरफ रेलवे
लाईन के साथ-साथ
लोहे के जंगले थे दूसरी तरफ
धूल मिट्टी भरी खुली जगह
थी। अब हम जमुना
किनारे हाथी घाट पहुंच
गए थे और वहां
से बांई ओर मुड़कर
करीब दो सौ गज
पर चुन्नीलाल ब्राह्मण हाई स्कूल आ
गये थे।
मै शंभूनाथ भाई साहब के
साथ-साथ स्कूल के
अन्दर डरते डरते गया। मुझे
बाहर इंतजार करने को कह
कर एक कमरे मे
चले गए। मै बाहर
खड़ा एक छोटे मैदान
की तरफ देखने लगा।
अब बहुत से छोटे
बड़े लड़के आगये थे और
एक ठिगने से पर
बहुत तगड़े मास्टर साहब खाकी निकर
पहने, उन्हे अलग-अलग लाईन
मे खड़े करवाने लगे।
बाद मे पता चला
था कि यह ड्रिल
मास्टर तिवारी जी थे।
इतने
मे शंभूनाथ भाई साहब आगये
और बोले तुम्हारा दाखिला
हो गया है और
तुम उन बच्चों के
साथ मैदान में खड़े हो
जाओ। मै
जब मैदान मे पहुँचा तो
ड्रिल मास्टर साहब ने मुझे
बाई तरफ से तीसरी
लाइन में खड़े होने
को कहा। उस लाइन
मे सारे लड़के मुझसे
बड़े थे। सब खाकी
या नीली निकर और
सफ़ेद कमीज़ पहने थे, और
मैं सफ़ेद जांघिया और कमीज़ पहने
हुआ था। मेरे लिए
कभी निकर बनी ही
नहीं थी। सफेद पाजामे
और कुर्ते और कमीज़ ही
थे मेरे लिए।
अब और कई मास्टर
साहब आ गये थे
और एक प्रार्थना गाने
लगे। हे! प्रभू आनन्ददाता
ज्ञान हमको दीजिए,,,,,,,।
मुझे तो याद थी
नहीं इसलिए चुप रहा। उसके
बाद ड्रिल मास्टर साहब को छोड़कर
और सब मास्टर साहब
चले गए और सारे
बच्चे ड्रिल मास्टर साहब के साथ-साथ उनके जैसे
हाथ पैर की कसरत
करने लगे। कुछ समय
बाद एक घंटा बजा
और हम लाईन मे
अलग-अलग कमरों मे
जाने लगे। हमारी लाईन
जिस कमरे में घुसी
वंहा दरवाज़े के ऊपर पांचवी
कक्षा लिखा था। बस
यह पढ कर मैं
सहम गया और रूआसा
होगया। किसी तरह चुपचाप
बैठ गया, सबसे पीछे
की बेंच पर।
मुझे आगे कुछ नही
दिखाई दे रहा था
क्योंकि सारे बच्चे मुझसे
लम्बे थे। खैर मैं
बैठा रहा। थोड़ी देर
बाद मास्टर साहब मेरे पास
आये और बोले तुम्हारी
किताबें कहाँ है। रोते
रोते मैं बोला नहीं
है आज ही भर्ती
हुआ हूं। मुझे चुप
कराते हुए उन्होने मुझे
एक लड़के के साथ एक
आफिस मे भेजा, वहाॅ
एक बाबू ने एक
परचा दिया और कहा
इस पर किताबो और
कॉपियों की सूची है,
अपने पिता जी को
देना वो लाकर देगें।
सब लेकर स्कूल आना।
जब स्कूल का घंटा जोर
जोर से
बजा तो पता चला
कि एक बज गया
और छुट्टी हो गई। इससे पहले पन्द्रह
मिनिट की रिसिस हुई
थी पर मै ऐसे
कुछ बच्चों के साथ कक्षा
मे ही बैठा रहा
जिन्हे घर से एक
पैसा भी नहीं मिला
था।
छुट्टी
होने पर पूंछ पाछ
कर किसी तरह ड्राईंग
की कक्षा मे पहुँचा तो
शंभूनाथ भाई साहब ने
कहा कि मुझे तो
घर जाने में अभी
देर है पर तुम
सिघंल साहब जो गणित
के मास्टर हैं और तुम्हारे
घर के पास हलवाई
गली मे रहते हैं
उनके साथ चले जाओ। रोशन
मुहल्ले के कई लड़के
स्कूल मे हैं उनके साथ
आया करना।
सिघंल
साहब बहुत मोटे थे
और उनकी बहुत बड़ी
तौंद की वज़ह से
स्कूल के लड़के उन्हे
गणेश जी कहते धे।
घर आकर मैं बहुत
रोया। उस
ज़माने मे अंग्रेजी तीसरी
कक्षा से किंग्स रीडर
- एक से पढाई जाती
थी। मुझे तो ABCD भी
नही आती थी और
मेरी कक्षा के लड़के
बहुत बडे थे, मुझे
मारेंगे तो कैसे बचूॅगा।
मेरी
दादी जिन्हे हम अम्मा कहते
थे यह सुनकर चाचा
जी पर बहुत नाराज
हुई और बोली कि
पूरन तुम जाते तो
यह गडबड़ी नही होती, पता
करो शंभूनाथ ने ऐसा क्यों
कराया।
बाई
जी बोली मास्टरों ने
जो किया ठीक ही
किया होगा। शंभूनाथ ने बाद मे
बताया कि तीसरी और
चौथी कक्षाओं में कोई जगह
खाली नहीं
थी तो क्या करता। इसका
एक साल बर्बाद हो
जाता, अब घर पर
एक मास्टर पढ़ाने के लिए रखवा
दूॅगा। बाई जी के
कहने पर चाचा जी
ने एक वकील साहब
के मुंशी बोहरन लाल जी को
दूसरे दिन से ही
मुकर्रर कर दिया। सारी मार तो
मेरे ऊपर ही पड़ने
वाली थी।
उसी
शाम बडी बहिन नगीना
जोजी के साथ हास्पिटल
रोड गया जहाॅ सारी
किताब काॅपी की दुकाने थी।
मुझे रूपये पैसे का सही
हिसाब नहीं आता था
पर बहिन बहुत चतुर
थी कभी भूल नहीं
करती थी।
दूसरे
दिन मंगलवार को सब किताब
काॅपी सूती साड़ी की
किनारी के थैले मे
डालकर स्कूल का बस्ता तैयार
कर मुझे फिर
भेजा गया। डरते डरते
चला तो गया और
कुछ आता भी नहीं
था। गली के लड़को
के साथ आता जाता
रहा।
घर पर मास्टर साहब
आने लगे और बडी
मेहनत से पढाई चल
पडी। कुछ-कुछ ठीक
हो रहा था कि
एक दिन जिसका डर
था, हो गया। छुट्टी
के बाद जैसे ही
बाहर निकले, ओमी नाम के
एक लड़के ने मेरा स्कूल
का बस्ता छीन लिया। मैंने
बहुत कोशिश की पर ओमी
मुझसे काफी बड़ा और
ताक़तवर था, मैं बस्ता
नही ले पाया और
रोते रोते घर लौट
आया।
बाई
जी ने मुझे प्यार
से शान्त कराया
और बोली तुम कुछ
खा कर मथुरा को
बुला लाओ सब ठीक
हो जायेगा।
थोडी
देर बाद मैं छोटे
भाई किशोर के साथ छीपीटोला
में पुलिस
लाइन में मथुरा के
सरकारी क्वार्टर पर पहुँचा। मथुरा
का पूरा नाम मथुरा
सिंह मीणा था। बडे
होने पर मथुरा छह
फुट दो इंच लम्बा
और बहुत मजबूत कद
काठी का जवान हो
गया था। चाचा जी
ने बाई जी के
आग्रह पर उसे अंग्रेजी
पुलिस में भर्ती करा
दिया था। उसके मजबूत
शरीर की वजह से
न तो पुलिस में
भर्ती में न तरक्की
मे कोई मुश्किल आई।
अब वह कांस्टेबल हो
गया था और ऊपर
की कमाई भी कर
रहा था। जब उसकी
तैनाती नये जमुना बिर्ज
पर हुई तो बहुत
कमाई की। आगरा में
रेलवे के दो पुल
जमुना पर बने थे,
पुराने पुल पर सिर्फ
रेलगाड़ी चलती थी और
नये पुल पर ऊपर
रेलगाड़ी और नीचे सड़क
पर मोटर ट्रक, कार,
तांगे, साइकिल, बैलगाड़ी और पैदल इंसान
जानवर सब चलते थे।
मथुरा सिंह मीणा ने
अपनी तैनाती पल्लीपार वाले नाके पर
करा ली थी। जो
भी ट्रक या बैलगाड़ी
शहर के बेलनगंज की
तरफ जाती उनसे वसूली
की जाती थी और
मथुरा को एक बड़ा
हिस्सा मिलता था। मथुरा सिर्फ
हमारी मां पर विश्वास
करता था। वो उन्हे
बाईसा कहता था और
कई बार अपनी नकदी
तकिए के लिहाफ में
भर कर रखवा जाता
था।
जब हम पहुँचे तो
मथुरा चारपाई पर लेटा हुआ
था। हम बच्चो को
अपना भांजा और भांजी मानता
था। हमे देखते ही
उठ गया और अपनी
बहू से हमारे लिए
मिठाई लाने को कहा।
मिठाई खाते हुए मैंने
अपने स्कूल के बस्ते के
छीने जाने की बात
बताई। वो
बोला बस दस मिनट
मे चलते हैं तुम्हारे
बस्ते को लाने।
उसने
जल्दी जल्दी वर्दी पहनी, बैल्ट पहनी और पुलिस
की लाल टोपी सिर
पर लगाली। उस समय पुलिस
से आम जनता बहुत
खौफ था।
हम लोग बारह भाई
की गली की तरफ
चलने लगे। जामा
मस्जिद के पास आने
पर मथुरा ने किशोर को
घर जाने के लिए
कहा और हम दोनो
रेलवे-स्टेशन से लाइन के
सहारे सहारे जमुना किनारे होकर बारह भाई
की गली में घुसकर
बुलाखी की बाखर पर
पहुँच गए।
बाखर
मे दो मंजिले बहुत
सारे मकान थे। कुछ
बच्चे कच्चे आहते मे खेल
रहे थे और कुछ
औरते गायों को
घास खिला रही थी।
मथुरा ने कड़कती
आवाज मे कहा ओमी
को हाज़िर करो। पुलिस को
देखते ही बाखर मे
हडकंप मच गया और
कई औरतो और बच्चों
ने रोना-धोना शुरू
कर दिया। दो तीन मिनट
मे एक ठिगनी औरत
मेरा बस्ता लेकर आ गई
और मथुरा के पैर छू
कर बोली कि अब
ओमी कभी शरारत नही
करेगा।
मथुरा
ने मेरा स्कूल का
बस्ता अपने कंधे पर
टांग लिया और मेरा
हाथ पकड़कर बाहर निकल आया।
हम लोग अब हमारे
घर आगये थे। उसने
बाईसा के पैर छुए
और स्कूल का बस्ता सामने रख दिया। बाई जी ने
मथुरा को आशीर्वाद दिया
और वह चाचाजी के
पैर छूकर कुछ बातचीत
करने लगा।
हम सब बच्चे बहुत
खुश हुए। पुलिस के
बाखर पहुँचने की
खबर न जाने कैसे
सारे स्कूल में जल्द ही
पहुँच गई और उसके
बाद सन 1951 तक कक्षा के
इस सबसे छोटे विद्यार्थी
को किसी ने कभी
न मारा, न
तंग किया। मास्टरों
ने भी कभी कोई
सजा दी। बोहरन लाल
जी ने मुझे दसवीं
क्लास तक घर पर
पढाया और हर कक्षा
में सेकंड या थर्ड पोजीशन
आई।
इति
Mr. Nihal Singh Jain is a Chartered Accountant by profession. His stories in ELSA Meets are available on this blog.